






डॉ. अनिला पुरोहित
नगर बीकाणा अपनी परम्पराओं और सांझी संस्कृति को जीने वाला, आपसे में हिलमिलकर जीवन का आनन्द उठाने वाला, फक्कड़ मस्ती, संतुष्ट, मन मर्जी की जीवन शैली को जीने वाला शहर जिसकी पहचान उसकी पाटा संस्कृति, चौक व गुवाड है़।
हर तीज त्यौहार को जीवतंता और मस्ती से मनाने वाला यह शहर बीकाणा आज खामोश एवं सन्नाटे में डूबा है। इस कोरोना संक्रमण व आपदा ने बीकानेर व यहां के वाशिन्दों को लॉक डाउन में कैद कर दिया है। लिहाजा इस शहर में न तीज मनाई गई, न गणगौर का मेला भरा, न आखा तीज पर पतंगबाजी और चन्दा उड़ाने का आनन्द लिया गया किन्तु घरों में इन त्यौहारों को जिया गया। इस अलबेले शहर बीकानेर का हर त्यौहार व परम्परा की अपनी ही रंगत व रौनक है। इसने अपनी स्थापना से लेकर अब तक अपनी संस्कृति, सहिष्णुता, आपसी भाईचारे की भावना को अक्षुण बनाये रखा है जो इसकी ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पहचान है।
बीकानेर कर्म, आध्यात्मिकता और संस्कृति मे ंहमेशा श्रेष्ठ रहा है क्योंकि जहां आज हम देख रहे हैं भारत अपने विकास के साथ पाश्चात्य संस्कृति व भोगवादी संस्कृति की ओर दौड़ रहा एवं नकल कर रहा है। वहीं यह सरल एवं संतुष्ट बीकाणा उपभोगवादी व परिग्रह की संस्कृति से कौसों दूर, प्रकृति व आध्यात्मिकता से अपना नाता जोड़ रखा है। बीकानेर विश्व प्रसिद्ध मां करणी की भूमि, सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि की तपोभूमि, छोटी काशी के नाम से विख्यात, रसगुल्ला व पापड़ भ्ुाजिया उद्योग में प्रसिद्ध इस आपदा से कुछ रूका व सहमा जरूर है। लेकिन इसने अपनी जीवतंता, जीवड़ता, कत्र्तव्यनिष्ठा, आपसी भाईचारे की सांझी संस्कृति से आए इस संकट से जूझा भी है और विजय भी पाई है क्योंकि यह शहर और ये शहरवासी हौसलों से जीना जानते हैं।
इस संकट और महामारी में भी इसने अपनी फाका मस्ती और अपनी परम्परा को जीवित रखते हुए न केवल स्वयं तक सीमित रहा बल्कि अपनी और बीकाणे के आस पास रहने वाले प्रत्येक जीव जन्तु मात्र की चिन्ता की है कि कोई भूखा, बीमार या बेहाल तो नहीं। नमन इस बीकाणा की धरती को जिसने इस विश्वव्यापी प्राकृतिक आपदा व खौफ के मंजर में अपने जीवंत होने को प्रामाणित किया है।
जहां हर बात को गैर से भी समझा जाता है
अपनों के संग परायों में भी प्यार बांटा जाता है
कुछ ऐसा शहर मेरा “बीकानेर”
जहां दिन भर के गम को रात “पाटों” पर छोड़ा जाता है।
बीकानेर वासियों ने मानव मात्र के कल्याण की बात करते हुए आध्यात्मिकता और प्राकृतिक पूजा व संरक्षण की चेतना को जागृत किया है। हालांकि पहले भी मनुष्य व मानव जाति के सामने प्लेग, हैजा जैसी महामारियों का संकट पैदा हुआ। किन्तु इस कोरोना वायरस संक्रमण ने विश्व को विवश कर दिया है। और यह जता दिया कि प्रकृति मानव सभ्यता से हमेशा अग्रणी थी और रहेगी। हमें हमारी विकास की लक्ष्मण रेखा को सीमित करना होगा और प्रकृति के प्रति सम्मान व आदर रखते हुए उसका संरक्षण व संरक्षित करना होगा। भारतीय चिन्तन व सांस्कृतिक मूल्यों व परम्पराओं को न केवल भारत बल्कि सम्पूर्ण विश्व को समझाते हुए आत्मसात करना होगा। हमें प्रकृति में ही ईश्वर को देखना होगा एवं परसेवा परमोधर्म को मानते हुए वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को समझना एवं समझाना होगा। आओ हम सब हमारी नई पीढ़ी को भारतीय मानवीय मूल्यों, भारत की प्राचीन गौरवशाली संस्कृति व प्रकृति पूजा, परम्पराओं, विश्व मैत्री की भावना से अवगत कराएं और विश्व के समक्ष भारतीय मूल्यों एवं संस्कृति का शानदार उदाहरण प्रस्तुत करें जिसकी समस्त मानव मात्र को आवश्यकता है और इस कोरोना जैसी वैश्विक आपदा पर विजय प्राप्त करें। पुन: जीवन्त हों तथा आगे की ओर बढ़ें।
डॉ. अनिला पुरोहित
सह आचार्य इतिहास
राज. डूंगर महाविद्यालय,
बीकानेर।